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देख के चलिहऽ / कैलाश चौधरी

रहिया देख के चलिहऽ
नञ तो काँटा गड़ जइतो
फेर पचतइते रहबऽ
कोय काम नञ देतो ।
दायें दलदल हो
बायें खाई हो
आगे-पीछे
बबूल के जंगल
अगल-बगल में
पाँच-पचीसों
लूटे ले
घात लगइले हो ।
पलक मारते लूट लेतो
आउ धक्का मार के
खाई मे धकेल देतो ।
तोरा कोय चारा नञ चलतो
घर-परिवार के लोग भी
टुकुर-टुकुर
ताकते रह जाइथून
ऊ दिन ओही काम देथून
जे जनम देलथून
उनके याद करिहऽ
सफर सफल हो जइतो ।