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देख पंछी जा रहें अपने बसेरों में / गौतम राजरिशी

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देख पंछी जा रहें अपने बसेरों में
चल, हुई अब शाम, लौटें हम भी डेरों में

सुब्‍ह की इस दौड़ में ये थक के भूले हम
लुत्फ़ क्या होता है अलसाये सबेरों में

अब न चौबारों पे वो गप्पें-ठहाकें हैं
गुम पड़ोसी हो गयें ऊँची मुँडेरों में

बंदिशें हैं अब से बाज़ों की उड़ानों पर
सल्तनत आकाश ने बाँटी बटेरों में

देख ली तस्वीर जो तेरी यहाँ इक दिन
खलबली-सी मच गयी सारे चितेरों में

जिसको लूटा था उजालों ने यहाँ पर कल
ढ़ूँढ़ता है आज जाने क्या अँधेरों में

कब पिटारी से निकल दिल्ली गये विषधर
ये सियासत की बहस, अब है सँपेरों में

गज़नियों का खौफ़ कोई हो भला क्यूं कर
जब बँटा हो मुल्क ही सारा लुटेरों में

भीड़ में गुम हो गये सब आपसी रिश्ते
हर बशर अब क़ैद है अपने ही घेरों में



(लफ़्ज़, सितम्बर-नवम्बर 2011)