भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देवता-सत्य / रामनरेश पाठक

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:09, 12 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामनरेश पाठक |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी चैतन्यता के अपराधों की
कंदीलें जलाकर
अगर अपने घर को रोशनी
दे सकते हो, तो दो
मेरे लिए गंदी नालियों से
आचमन का जल लाकर
मुझे दे सकते हो, तो दो
चीखो--
मेरा देवता सत्य नहीं था
परंतु जी चीखने से पहले
अपनी आरती के उच्च स्वरों को
पूर्ण विराम तो दे दो लो
और, अपने भ्रम को ही
प्रसाद बना कर
कुल-कुटुंब सहित ग्रहण करो, अब!
मैं तो स्वयं ही
'यातना का सूर्यपुरुष' था
तुम्हारे अर्घ्य तो तुमसे ही प्रेरित थे
यह छल नहीं था
मेरा कोई छल नहीं था
अपने आप में झांको
और चीखो, और जोर से चीखो
मेरा देवता सत्य नहीं था
मैं तो यह सौरमंडल छोड़ कर
अग्रगामी होऊंगा ही
(क्योंकि)
वही मेरी गति
नियति
और एकमात्र
परिणति है