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देववण को वर्णन / चन्द्रमोहन रतूड़ी

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आजकल् छौं मैं बिचारण लग्यूं देवतों का वणूमां।
आकाश् लव्योणक<ref>पकड़ने के लिए</ref> कर खड़ा पर्व्वत का सिरौंमां।।
ठंडी हल्की तलती’ र सफा वायु का और सीतल्।
निर्मल् उज्ज्वल, सरस जल की उत्पती की जगींमां।।
जादा नत्दीक् रहण पर भी तेजवान् सूर्यदेव।
कड़ी दृष्टिन् कविमि यश नी देखदो तापकारी।।
और्नारोंदा, कृपण, टुकड्या, सख्त बुन्दून्यखेद।
वर्षा कर्दो पर बरफ का नर्म, हंस्दासि फूलून।।
ये तोहोंदन् अब फटिक या चांदि का ये पहाड़।
नीला आकाश् निस तब हर्यां देवदारु विशाल।।
पौंदन् शोभा कतिनि, सूर्य-चन्द्र-प्रभा से।
क्या की देव्ता निछन यख यीं रम्यता भोगदारा?
....उड़दो मेरो मन यखन पर, फिनी अपणा गंगाड़<ref>खेत</ref>,
प्यारा मैक् छन् फिरमि अपणा सारि<ref>खेत, रोपण के लिए</ref> सेरा<ref>मैदान</ref> व सौड़।।
जोड़दा हात में यखन अपणी मां सि भागीरथी कू।
ई का गोदस्थित हि अपणा जन्म का गोदि गौंक।

शब्दार्थ
<references/>