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देश हैं हम / शंभुनाथ सिंह

        देश हैं हम
        महज राजधानी नहीं ।

हम नगर थे कभी
खण्डहर हो गए,
जनपदों में बिखर
गाँव, घर हो गए,
हम ज़मीं पर लिखे
आसमाँ के तले

        एक इतिहास जीवित,
        कहानी नहीं ।

हम बदलते हुए भी
न बदले कभी
लड़खड़ाए कभी
और सँभले कभी
हम हज़ारों बरस से
जिसे जी रहे

        ज़िन्दगी वह नई
        या पुरानी नहीं ।

हम न जड़-बन्धनों को
सहन कर सके,
दास बनकर नहीं
अनुकरण कर सके,
बह रहा जो हमारी
रगों में अभी

        वह ग़रम ख़ून है
        लाल पानी नहीं ।

मोड़ सकती मगर
तोड़ सकती नहीं
हो सदी बीसवीं
या कि इक्कीसवीं
राह हमको दिखाती
परा वाक् है

        दूरदर्शन कि
        आकाशवाणी नहीं ।