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देह का धर्म / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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1
फूल न खिले
बस धूल में मिले
पावन मन
पैरों के सदा तले
सबने थे कुचले।
2
में जी जाऊँगा
गले से जो लगा लो
कहीं छुपालो
तुम पावनी गंगा
अपने में समा लो।
3
सागर मन!
छाया घोर अँधेरा
सुनामी बहे
दीप स्तम्भ मैं खोजूँ
तुम नज़र आए।
4
क्रूर संसार
घेरे चारों ओर से
छाया अँधेरा
तुम बन सौरभ
ले आए हो बहार।
5
देह का धर्म
निभाया रात-दिन
हाथ क्या आया?
वासना बुझी नहीं
राख हो गए कर्म।
-०-