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देह का सिंहनाद / कुबेरदत्त

No change in size, 16:34, 26 अक्टूबर 2011
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यह मेरा
 
अपमानित, तिरस्कृत शव...
 
शव भी कहाँ-
 
जली हडडियों की केस प्रापर्टी,
 
मुर्दाघर में अधिक-अधिक मुर्दा होती...
 
चिकित्सा विज्ञान के
 
शीर्ष पुत्रों की अनुशोधक कैंचियों से बिंधी,
 
विधि-विधान के जामाताओं का
 
:सन्निपात झेलती...
 
:ढोती
 
:शोध पर शोध पर शोध-
 
: यह तिरस्कृत देह...
 
सामाजिकों की दुनिया से
 
जबरन बहिष्कृत
 
अख़बारनवीसी के पांडव दरबार में नग्न पड़ी
 
यह कार्बन काया-
 
मुर्दाघर में अधिक-अधिक मुर्दा होती...
 
भाषा के मदारियों की डुगडुगी सुनती...
 
कट-कट
 
जल-जल
 
फुँक-फुँक कर भी
 
पहुँच नहीं पाती पृथ्वी की गोद तक...
 
न बची मैं
 
न देह
 
न शव...
 
भूमंडलीकरण की रासलीला के बीच
 
लावारिस मैं
 
अधिक-अधिक मुर्दा होती...
 
झेलती
 
पोस्ट-पोस्ट पोस्टमार्टम
 
उत्तर कोई नहीं
 
न आधुनिक, न उत्तर आधुनिक
 
न प्राचीन...
 
क्या
 
मुर्दों के किसी प्रश्न का
 
कोई उत्तर नहीं होता?
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