भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दैनिक अखबार की हेडलाइन पर / परिचय दास

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:10, 5 अक्टूबर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= परिचय दास |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem> दैनिक अखबार की हेड…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दैनिक अखबार की हेडलाइन पर कितने ही दिनों से
एक विषण्ण मृत्यु उतर आती है
जैसे समय की पीठ पर सो जाती कोई चिरंतनी
ड्रेसिंग टेबुल पर दिन-रात का अंतहीन खेल
अंजलि में आई हुई छोटी-सी मछ्ली आसन्न अंत से उदास
हवा के वेग अनुकूल नाट्य करती, बिना तजे अपनी चंचलता
उंगली के बदले लोग बंदूक के इशारे से बताने का पुण्य कमाते हैं
श्ललथ पड़ा रहूँ शय्या में : बगल में फैली पड़ी अपनी ही
भुजा देखकर चौंकूँ
कोशबद्ध अनजाने शब्द समान मैं था निरा शरीरधारी असहाय
अभी छिटक गए गोमयधुले जल की बूँदों की निशान बिंदियाँ
धरती की मानवी स्वस्थ संहिताएँ
भाग्यहीन अपने बच्चों सहित
हँसिए को भूख क्या है, पता चल जाए तो जमाखोर हो जाएँ
ऐसे के तैसे
सुलगो, सुलगकर लिखो : जलो, जलते हुए लिखो
मेरे जमीर के भीतर मुर्दा धँस रहा है
सड़कों पर मासूम खून के छींटों से न लिखो इतिहास
प्रत्येक शब्द के बीच उतर आई निस्तब्धता की तरह
प्रत्येक उच्चारण के बीच ठहरे हुए बँधे सोच की तरह
यह देखिए फूल, यह देखिए विष : रक्तरंजित
कांमाध शाह हेतु सज्जित पर्यंक, अपंग नारीत्व के प्रति अपराध
मैं बहुत दुःखी हो गया यह सुनकर मेरे अंतर में कई प्रश्न उठे
क्यों समय उसके प्रति इतना निर्मम बना, जो सामान्य जन हैं
मेरी अंगुलियाँ घायल हुई हैं इन खारों में
चीखें-चिल्लाहटें मिली-जुली औरतों, आदमियों, बच्चों की
भीड़ देखती रही : धुमावृत्त हो गया चिराग
घने अंधकार के काले होंठ उचारते हैं दारुण मृत्यु-गान !