भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोपहर में सिनेमाघर / जोवान्नी राबोनी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:14, 3 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जोवान्नी राबोनी |अनुवादक=अनिल जन...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमेशा की तरह
आज दोपहर भी
आए हुए हैं अजीब लोग
सिनेमा देखने
(लेकिन देखने में अच्छे लग रहे हैं)

वे पहले बैठ जाते हैं
किसी एक सीट पर
और फिर
बार-बार बदलने लगते हैं अपनी सीट

कुछ लोग
पीछे की तरफ़ खड़े हो जाते हैं
कुछ घेर लेते हैं रास्ता
एक छोटे क़द की लड़की
एक अकेले आने वाली औरत
एक लंगड़ाती हुई लड़की...

आप इन सबको देखते हैं
लेकिन आप
क्या कर सकते हैं?

मैं भी उन्हें देखता हूँ
बड़े ध्यान से
मैं जानना चाहता हूँ
उनके सबके बारे में विस्तार से
मैं सुनना चाहता हूँ उनकी कहानी।

अचानक हॉल में
बत्तियाँ
जगमगाने लगती हैं
और वे लोग
छटपटाने लगते हैं

वे बचना चाहते हैं
रोशनी से
वे उस अन्धेरे में
डूबना चाहते हैं
जो एक मिनट बाद ही
छा जाएगा फिर से।

रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय