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दोसर खण्‍ड / भाग 3 / बैजू मिश्र 'देहाती'

उर अन्तर उपजल बहु क्लेश,
सजल नयन बजला मिथिलेश।
वीर विहीन धरणि अछि भेल,
सियाक विवाह मनहि रहि गेल।
सुनि नृप वचन लखन मन रोष,
वीर विहीन कहब अछि दोष।
उठि बजला सौमित्र सकोप,
अछि सम्भव ब्रह्माण्डक लोप।
के पूछए तृण सम कोदंड,
करब निमिषमे खंड-पखंड।
बोधल लखन गुरूक उपदेश,
जग अवतरित छलाजे शेष।
गुरू आदेश पाबि श्रीराम,
गेला निकट धनु शोभाधाम।
छवि निहारि धनु सुधि तजि देल,
चिदानन्द गति अनुगत भेल।
अपन बलक सभ बिसरल बात,
सहजहि उठा राम कोदंड,
पल नहि खसल कएल दू खंड।
सुरगण सुमन देल बरषाए,
नभ मंडलसँ अति हरषाए।
धन्य धन्य गूंजल चहुओर,
कठिन राति गत जनु अछि भोर।
जनकक उर मुद तेहन बुझाए,
उदधि डुबैत तरणि जनु पाए।
रूद्ध कंठ गत ज्ञान शरीर,
नेह पुलक बस दृग बहनीर।
छली सुनयना भेलि बताहि,
खन खन धरथि सिया भरि बांहिं
भाग्य सराहथि भाषथि बैन,
एहन सुयोग ने देखल नैन।
परशुराम अयला तहिकाल,
क्रोधित तन मन बनल कराल।
पूछल के कयलक धनु भंग,
तकर विदीर्ण करब सभ अंग।
शिव धनुषक ई अछि अपमान,
निश्चय हरब तकर हम प्रान।
देखि परशु धर केर ई रूप,
भागि गेला सभ आगत भूप।
क्षण बिच की छल की भए गेल,
सुखक राज्य दुख पूरित भेल।
जनकक उर छल बहु संताप,
कोन कर्म फल ई अभिशाप।
पुरबासी बिच भएगेल सोर,
ककर नयन नहि बह बहुनोर।
तखनहि लखन संग फुफकार,
कयल ऋषी पर बचन प्रहार।
जीर्ण शीर्ण धनु तोड़ल राम,
क्रोध अश्वकें दीअ लगाअ।
पाकल सड़ल धनुषकेर मोह,
किएक भेल ऋषि एतेक बिछोह।
ऋषि बजला लए द्विगुणित क्रोध,
अखनहि बलक कराएब बोध।
क्षत्री वंशक कयलहुँ नास,
बहुल बेर बिनु अधिक प्रयासं
कहलनि लखन सहित अति रोष,
ऋषिवर अपन सम्हारू होसं
करूने तखनुक बलक प्रचार,
नहि छल भेल राम अवतार।
ऋषि बजला निज क्रोध हटाए,
धनुष तीर दए देल बढ़ाए।
तखनहि मानब तकर प्रमाण,
हमर धनुष पर चढ़बथु बाण।
परल नहि खसल चढ़ाओल तीर,
धनुपर, जगपति श्री रघुवीर।
अस्त्र-शस्त्र सभ दए उपहार,
राम चन्द्रकें विविध प्रकार।
भ्रम मेटाए ऋषि कएल प्रणाम,
गेला छलनि जहँ आश्रम धाम।
पुरवासी सभ भेला प्रसन्न,
जनु अमूल्य निधि पाबि बिपन्नं
गेला अयोध्या लए सम्वाद,
सतानन्द उर अति अहलाद।
समाचार पओलनि अवधेश,
उमड़ल हर्षक उदधि अशेष।
बरियाती केर भेल प्रबंध,
कतेक चलथि नहि छल प्रतिबंध।