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दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को / सहबा अख़्तर

दोहराऊँ क्या फ़साना-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल को
गुज़रे कई फ़िराक़ किसी के विसाल को

रिश्ता ब-जुज़-गुमान न था ज़िंदगी से कुछ
मैं ने फ़क़त क़यास किया माह ओ साल को

शायद वो संग-दिल हो कभी माइल-ए-करम
सूरत ने दे यक़ीन की इस एहतिमाल को

तर्ग़ीब का वुसअत-ए-इम्काँ पे इन्हिसार
रम-ख़ुर्दगी सिखाता है सहरा ग़ज़ाल को

‘सहबा’ सदा बहार है ये गुलिस्तान-ए-फ़न
मुमकिन नहीं ज़वाल सुख़न के कमाल को