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दोहा - 4 / रत्नावली

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भलें होइ दुरजन गुनी भली न तासौ प्रीति।
विषधर मनिधर हू रतन, डसत करत जिमि भीति॥

भल इकिलो रहिबो रतन, भलो न षल सहवास।
जिमि तरु दीमक सँग लहै, आपन रूप बिनास॥

घी को घट है कामिनी, पुरुष तपत अंगार।
रतनावलि घी अगिनि को, उचित न सँग विचार॥

आलस तजि रतनावली, जथासमय करि काज।
अबको करिबो अबहि करि, तबहि पुरैं सुष साज॥

रतनावलि उपभोग सों, होत विषय नहिं सांत।
ज्यों-ज्यों हवि होमें अनल, त्यों-त्यों बढ़त नितांत॥