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दोहा / नज़ीर अकबराबादी

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कूक करूँ तो जग हँसे, चुपके लागै घाव।
ऐसे कठिन सनेह का किस विधि करूं उपाव॥

जो मैं ऐसा जानती पीत किए दुख होय।
नगर ढिंढोरा फेरती पीत न कीजो कोय॥

आह! दई कैसी भई अन चाहत के संग।
दीपक को भावै नहीं जल जल मरे पतंग॥

विरह आग तन में लगी जरन लगे सब गात।
नारी छूवत वैद के पड़े फफोे हात॥

हिरदे अंदर दव लगी धुवां न परगट होय।
जातन लागे सो लखे या जिन लाई होय॥

ना मेरे पंख न पाँव बल मैं अपंख पिया दूर।
उड़ न सकूँ गिरि गिरि पडूँ रहूँ बिसूर बिसूर॥

दिल चाहे दिलदार को तन चाहे आराम।
दुविधा में दोहू गए माया मिली न राम॥

देह सुमन तें ऊजरी मुख तें चंद लजाय।
भौहें धनकें तान के पलकें बान चलाय॥

भेंट भई जाते कही नैनन असुवा लाय।
हो कोई ऐसा महंत जो पीतम मंदिर बताय॥

अलकन फंदे उड़ परी मन फस दियौ रोय।
दृगन जादू डार के सुध बुध दीनी खोय॥

नेह गले का हार है हूं तीरे बलिहार।
मारे मोहे विरह दुख ले चल वाके द्वार॥

पलक कटारी मारके हिरदे रक्त बहाय।
कह की आह सामर्थ जो वाके द्वारे जाय॥

नेह नगर की रीत है तन मन देहौ खोय।
पीति डगर जब पग रखा होनी हो सो होय॥

पीतम ने मुँह मोड़ के कीनो मान गुमान।
बिन देखे वा रूप के मेरे कढ़त पिरान॥

मन मोरा बस कर लियो, काहे कीनो ओट।
ऐसी मोते मन हरन का बन आई खोट॥

मन मेरो या बात रस निपट भयौ परसंद।
निकसो दुख मन बीचते आन भरो आनन्द॥

शब्दार्थ
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