भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 1 / राधावल्लभ पाण्डेय

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:31, 31 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राधावल्लभ पाण्डेय |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जन्म भूमि सेवत सुजन, धरम जाय बरु छूटि।
सुरन संवारी सुरपुरी, रतना कर को लूटि।।1।।

बन्धु न स्वर्गहु में सुलभ, जन्म भूमि को स्वाद।
तब तो लक्षिमी ताहि तजि, किये सिंधु आबाद।।2।।

बार बार रवि करन गहि, नभ पर धरत उठाय।
गिरि-गिरि, बहि-बहिबारि तउ, बन्धु सिंधु में जाय।।3।।

जनम-भूमि को प्रेम तो, माटिहु माहिं लखाय।
ढेला फेंको गगन में, गिरत भूमि पर आय।।4।।

बिजय सबल की होत है, नित्य निबल की हार।
सबल गठित भई जब प्रजा, नस्यो सदल बल जार।।5।।

तपो वली गुनि शाप भय, भूपन पूजे पाँय।
वेई द्विज अब सूद से, बल बिन धक्के खाँय।।6।।

होत निबलता में कबहु, जो कछु तारन जोग।
तौ को पूछत गाय को, अजा पुजावत लोग।।7।।

निबल सिद्ध करि आप को, हनत न रावण कंस।
राम कृष्ण को नाम तौ, होत न आज प्रशंस।।8।।

चलत न कछु बल निबल को, बनत सबल को कौर।
चूहा कबहुँ न धरि सकत, बिकट म्याउँ को ठौर।।9।।

खुद न बने जो ताहि को, सकत गुलाम बनाय।
चढ़ि ले कोऊ सिंह पै, भला लगाम लगाय।।10।।