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दोहा / भाग 2 / रसलीन

वा रसाल को लाल किन, देखत होहिं निहाल।
जाहि भालतकि बाल सब, कूटति हैं निज भाल।।11।।

जोरि सकत रसलीन तिहिं, भाल साथ को हाथ।
चंद कलंकी करि दियो, बिधि सोहाग जिहिं माथ।।12।।

ढुरै माँग तें भाल लों, लर के मुकुत निहारि।
सुधा बुन्द मनु बाल ससि, पूरत तम हिय फारि।।13।।

बारन निकट ललाट यों, सोहत टीका साथ।
राह गहत मनु चन्द पै, राख्यो सुरपति हाथ।।14।।

लाल सु बिदुली भाल तकि, जग जानी यह रीति।
तेरे सीस प्रतीति कै, बसी मीत की प्रीति।।15।।

सोहत बेदी पीत यों, तिय लिलार अभिराम।
मनु सुर-गुरु को जानि के, ससि दीनो सिर ठाम।।16।।

यहि बिधि गोरे भाल पै, बेंदी स्वेत लखाय।
मनो अदेवन हित अमी, लेत सुक ससि आय।।17।।

दई न बाल लिलार पर, बेंदी स्याम सुधार।
माँग स्यामता उरग लों, बैठ्यो कुण्डल मार।।18।।

तुव लिलार इन आड़ किय, निज गुन विदित निदान।
अड़ि राखत है आड़ ह्वै, आड़ आड़ जग प्रान।।19।।

सूधी पटिया माँग बिनु, माथे केसर खौर।
नेह कियो मनु मेघ तजि, तड़ित चन्द सों दौर।।20।।