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दोहा / भाग 2 / रामचरित उपाध्याय

हँसि भौंइन लजि दृगन भनि, अधरन मैं इठलाय।
करिनी सी हिय-कमल दलि, चली नवेली जाय।।11।।

मानिनि भाव न भीतरी, गोइ सकति मुसकान।
बिनु कारन आदर अधिक, अधिक जनावत मान।।12।।

कित चितवत इत नेकु लख, उदित कला ससि दोज।
राजत मिस द्विजरात के, असि कर मनो मनोज।।13।।

पबि लगि मरनो औचके, बरुक लिखे बिधि खोट।
पै न लगै किहुं काहु को, अदब दबी दृग-चोट।।14।।

आवत ही घर भरि उठ्यो, बतरस लग्यौ न घात।
तदापि मिले दोउन खिले, पूछि दृगनि कुसलात।।15।।

घुँघरारी टुटि केस मुख, छहरि छयो छवि देत।
भ्रमत कोकनद भ्रम मनौ, अलि अवली मधु हेत।।16।।

पपिहा बारयौ तोहिं पै, हियो देत गहि नेहु।
हनि पाइन तिहिं ताहु पै, मेघ मोघ अघ लेहु।।17।।

कटि तनु भरे सुजंघ-जुग, सब तन भरे उमंग।
खिलत जवानी पाइ मनु, खिलत रहत से अंग।।18।।

रुकि न सकी आवत बन्यौ, तजि गुरु जन की भीति।
मोहि करी अति बावरी, खरी रावरी प्रीति।।19।।

कढ़ि आये तन सेद कन, पुलकि उठी उहिं काल।
पाती लखि पिय-कर-लिखी, छाती छ्वावत बाल।।20।।