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दोहा / भाग 6 / राधावल्लभ पाण्डेय

अजब न बन्धु किसान जो, बैलन मुक्ति न देत।
गाड़ी कौन चलाइहै, कौन जोतिहै खेत।।51।।

नाक छिदी गरदन बँधी, कन्धा जुआ धरि गौन।
बन्धु कमाऊ पूत बनि, लाभ बैल को कौन।।52।।

पूजा को गरजो रहै, अरजी करै न कान।
निज मरजी ही पर मरै, सो फरजी भगवान।।53।।

होउ अलग जो दै सकत, नहिं अनाथ को साथ।
भगवन्! है भगवान पन, बैं न तुम्हारे हाथ।।54।।

बिन कानन के सेस पर, सोवै पैर पसार।
वा श्री पति भगवान की, बन्धु न अब दरकार।।55।।

जाको माया के बिना, बन्धु चलत नहिं काम।
मेरो वा भगवान को, दूरहिं सो परनाम।।56।।

पापी द्विज टेरत सुतहिं, तेहि निज सुमिरन मान।
मुक्ति देत जो गावदी, सों भोंदू भगवान।।57।।

बन्धु न रुचि भगवान की, अब सेवक दरकार।
वे दासन सासन करैं, ये सवैं करि प्यार।।58।।

रीझत जो भगवान बस, देखि सुखसामद अन्ध।
जुरै न वासो नेकहूँ, कबहुँ बन्धु सम्बन्ध।।।59।।

जा कर सीधी हृदय में, लगती बाण समान।
‘बन्धु’ बिपक्षी वृन्द की, व्यंग्य भरी मुसकान।।60।।