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दोहा / भाग 6 / रामसहायदास ‘राम’

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चूकि समै न बिचारि तू, बादि करे अपसोस।
अपने करम फलद चितै, हरि को देइ दोस।।51।।

लाल लाई ललितई, कलित नइ्र न दरसाय।
दरसो सारस रस भरे, दृग आदरस मँगाय।।52।।

अरुन स्याम बेंदी दिए, मुकुर दरसि मुसक्याइ।
मनहु बिमल सर ससि गयौ, कुज सनि संग लिवाइ।।53।।

लाल चलत लखि बाल के, भरि आए दृग लोल।
आनन बात कढ़ी नहीं, पीरी चढ़ी कपोल।।54।।

टरत न चौबारे खड़ी, अरी भरी रस-बाम।
अरो खरो तहँ साँवरो, प्रेमभरो बस-काम।।55।।

लसत पीत पट हरि कटी, ऊँचे कर दृग नीच।
मनू चपला छबि सों, पटी है लपटी घनबीच।।56।।

भरन गई जमुना जलै, जोहि ललै ललचाइ।
ईछन भरि छबि छैल की, आई चेत गँवाइ।।57।।

सुबरन पाय लगे लगै, दुरित उदित जग माहिं।
परत रजत पायल अरी, सुबरन की ह्वै जाहिं।।58।।

मैं मोही मोहे नयन, खेह भई यह देह।
होत दुखै परिनाम करि, निरमोहीं सो नेह।।59।।

जिहि पहिरे छुगुनी अरी, छिगुनी छबि छहराहिं।
सोने के लोने भले, छले छले किहि नाहिं।।60।।