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दोहा / भाग 8 / हरिप्रसाद द्विवेदी

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दलौ त्रिशूल त्रिशूल धर, त्रिभुवन अलयंकारि।
हर त्रयम्बक त्रेलोक्य पर, त्रिदश ईश त्रिपुरारि।।71।।

धनि दुर्गा राठौर तूँ, दल्यौ मुगल-दल-दाप।
लखियत मरुथल पै अजौं, तुव निजन्यारी छाप।।72।।

भावतु भारत-भाल कौ, तितल तिलक हीं एक।
व्यक्त भयौ जातें सदा, शक्ति भक्ति उद्रेक।।73।।

जुग जुग अकह कहानियाँ, कहिहै कवि कुल गाय।
धनि भारत भट-नारियाँ, रह्यो सुजस चहुँ छाय।।74।।

धारि पीउ-भुज-माल तब, बिलस्यो नेह रसाल।
अब हौं बीरा धारिहौं, समर शत्रु-सिर-माल।।75।।

निज प्रिय लाल कटाय जो, प्रभु-सिसु लियो बचाय।
क्यों न होय मेवाड़ में, पूजित पन्ना धाय।।76।।

धन्य सती दुर्गावती, करि गढ़ मण्डल राज।
रखी गोंड़वानैं तुहीं, खड़ग धर्म की लाज।।77।।

मुगलनु पै झपटी मनो, रण सिंहिनि तजि चाँद।
अकबर-मद-मर्द्दनु कियो, धनि सुलताना माँद।।78।।

भई प्रगटि रण-चण्डिका, गढ़ झाँसी परतच्छ।
सुभट सँहरे लच्छमी, लच्छ लच्छ करि लच्छ।।79।।

नहिं यामें अचरजु कछू, नाहिंन नीति-अनीति।
हँसत सदा खल सुजन पै, नई न कछु यह रीति।।80।।