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दोहा / भाग 9 / रसनिधि

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जब लग काँचे घट पके, बिरह अगिन मैं नाहिं।
नेह नीर उनमैं अरे, भरे कौन बिधि जाहिं।।81।।

बेग आइ कै मीत अब, कर हिसाब यह साफ।
मेहर नजर कै बिरह की, बाकी कर दै माफ।।82।।

कहियौ पथिक सँदेस यह, मन मोहन सौं टेर।
बिरह-बिथा जो तुम हरी, हरी भई ब्रज फेर।।83।।

जीवै लैवा जोत कौ, दोऊ देहु मिलाइ।
ऊधौ जोग बियोग मैं, अंतर कह ठहराइ।।84।।

मन हरिबे की ज्यों पढ़े, पाटी स्याम सुजान।
तौ यहऊ पढ़ते कहूँ दीबौ दरसन-दान।।85।।

जिते नखत बिधि दृग तिते, जो रच देतौ मोहि।
तृपित न होते वे तऊ, निरख भावते तोहि।।86।।

नेही दृग जोगी भए, बरुनी जटा बढ़ाइ।
अरे मीत तैं दै इन्हैं, दरसन भिच्छा आइ।।87।।

मोहन लखि जो बढ़त सुख, सो कछु कत बनै न।
नैनन कै रसना नहीं, रसना कै नहिं नैन।।88।।

लगत कमल-दल नैन जल, झपट लपट हिय आइ।
बिरह लपट अकुलाइ जब, भाज हिए तैं जाइ।।89।।

अमरैया कूकत फिरै, कोइल सबै जताइ।
अमल भयौ ऋतुराज कौ, रुजू हौहु सब आइ।।90।।