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दोहा / भाग 9 / रामचरित उपाध्याय

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चकई चाहति रविहिं ज्यौं, चन्दहिं चहत चकोर।
त्यौं चाहैगो मन कबै, तू नित नन्द किशोर।।81।।

करै कोटि कोऊ जतन, नसै न करम अनन्त।
राम कृपा सोऊ सुलभ, समुझाहिं यह मत संत।।82।।

विनय, सुसंगति, सुमति हिय, दया जाति ये चारि।
मिलहिं न कछु संदेह तिहिं, आपुहि आइ मुरारि।।83।।

संछेपहि सुनि लेत यह, निगमागम को उक्त।
जाको कुछ इच्छा नहीं, सोजन जीवन मुक्त।।84।।

दीन राज मो सम न कोउ, तों सौं दीन-निवाज।
जुरी जोड़ भल आइकै, को जीतै रघुराज।।85।।

जोग-जुगति नहिं चाहिये, नहिं जत-तप-ब्रत-नेम।
सबै सिद्ध ह्वै जाहिं जो, हिये राम पद प्रेम।।86।।

बुधि नहिं, बल नहिं, विभव नहिं, बुझौं न ब्रह्म-विलास।
पतित-नृपति हौं मोहि है, राम रावरी आस।।87।।

प्रेमांजलि दै नाथ मैं, माँगत बार करोरि।
क्यौं हूँ ढुरकि परो रहौं, राम रावरी पौरि।।88।।

तू मति मारै काँह कौ, तोहिं सके को मारि।
सुधि राखत हिय माहिं नित, निज जग जानि मुरारि।।89।।

बल विद्या वैभव वरन, इन तैं चलै न काम।
परखि यहै दृढ़ करि लियौ, प्रेम-पियासे राम।।90।।