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दोहे-1 / महेश मनमीत

बँटवारे का मामला, पहुँचा जब तहसील।
अपने से लगने लगे, मुंशी और वकील॥

संगत पर मुझको दिखा, जब दुनियावी रंग।
मैं दुनिया में आ गया, छोड़ सभी सत्संग॥

समझौते के नाम पर, थे ऐसे प्रस्ताव।
फिर से जिंदा हो गए, सभी पुराने घाव॥

मैं अक्सर इस बात पर, होता हूँ हैरान।
अब उनकी ही पूछ है, जिनके पूँछ न कान॥

होगा उस इंसान के, मन में कितना मैल।
बूचड़खाने को दिए, जिसने बूढ़े बैल॥

रे भी बहके कदम, उसने भी दी छूट।
और सब्र का बाँध फिर, गया एक दिन टूट॥

गूँजी, फिर गुम हो गई, सन्नाटे में चीख।
अबला अपनी लाज की, रही माँगती भीख॥

ताकतवर कमजोर का, करते रहते खून।
शायद होता है यही, जंगल का कानून॥

दौड़ी पूरे गाँव में, कुछ ऐसी अफवाह।
होते-होते रह गया, फिर विधवा का ब्याह॥

बूढ़ी आँखें देखतीं, आते-जाते पाँव।
शहर गए बेटा बहू, कब लौटेंगे गाँव॥