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दोहे-1 / विनय मिश्र

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1.
मैं अदना—सा आदमी, मेरी कौन बिसात
फ़ाकों में दिन कट गए, औ' आंँखों में रात
2.
 हम दोनों हैं एक ही, कुनबे के इंसान
 उसको गीता याद है, मुझको याद कुरान
3.
मेरी किस्मत में कहांँ, लिक्खा है आराम
छुट्टी के दिन ही रहा, सबसे ज़्यादा काम
4.
हरदम रहती ज़िन्दगी, अपनों से हैरान
जूता काटे पांँव को, सोना काटे कान
5.
मैं उसके बाज़ार का, जब से हुआ विचार
मेरे घर चलने लगा, उसका कारोबार
6.
मेरे घर के सामने, कुचल गया मासूम
अगले दिन अख़बार से, मुझे हुआ मालूम
 
7.
कहीं बरसने के लिए, देखी कब तारीख
बादल की आवारगी, आंँखों ने ली सीख
 8.
रचना के जनतंत्र में, जिसमें जितना ताप
तय करती है आग ये, कहांँ खड़े हैं आप
9.
मुट्ठी बँधती और फिर, उठता इक प्रतिवाद
जब भी कहते ज़िन्दगी, तुझको ज़िन्दाबाद
10.
कैसे होगा झूठ का, बोलो पर्दाफाश
सच कहते ही पेड़ पर, टँग जाती है लाश
11.
दुखिया गलियों में करे, जूठी पत्तल साफ
लेकिन लाखों में बिका, उसका फोटोग्राफ
12.
दिन रूठे संवाद के, सूखी मन की झील
दरक रहे विश्वास की, सुनता कौन अपील
13.
जब से मेरे गांँव का, मुखिया बना बबूल
कांँटों की मर्जी बिना, खिला न कोई फूल
14.
रक्षक ही भक्षक हुए, जनता हुई अचेत
दुर्दिन ऐसे आ गए, बाड़ खा रही खेत
15.
अपराधी रचने लगे, संसद में कानून
संसद में ही हो रहा, लोकतंत्र का ख़ून
16.
कैसा आदमखोर है, सत्ता का कानून
जो सुविधा के नाम पर, पी जाता है ख़ून
17.
मौला मेरी चाह है, ऐसा हो संसार
सबके होठों पर हंँसी, सबके दिल में प्यार
18.
जीवन में ऐसा लगा, सुविधाओं का रोग
आपस में रहने लगे, कटे-कटे से लोग
19.
शहर हुआ बाज़ार अब, हर घर इक दूकान
चलता फिरता आदमी, बिक्री का सामान
20.
सत्ता पूंँजी मीडिया, भोगी नौकरशाह
सब मिलकर करने लगे, लोकतंत्र का दाह
21.
चिकनी चुपड़ी बात से, साधें ऐसा योग
खड़े-खड़े ही दंडवत, कर लेते हैं लोग
22.
इनकी भी जयकार है, उनकी भी जयकार
लगी हाज़िरी हर तरफ, सुविधा के अनुसार
 23.
कैसे मौसम ने दिया, अपना डेरा डाल
कौवा भी चलने लगा, यहांँ हंस की चाल
24.
इतना तो दुख भी नहीं, कर पाया था काम
जितना सुख ने कर दिया, हमकोआज गुलाम
25.
अपने दिल में बांध लो, बस इतनी-सी बात
अपने सूरज के लिए, लड़ना सारी रात