भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहे-2 / महेश मनमीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साबित करता है यही, मरा-मरा का जाप।
श्रद्धा सच्ची हो अगर, धुल जाते हैं पाप॥

गंगाजल रखता नहीं, किंचित मन में बैर।
ज्ञानी करते आचमन, मूरख धोते पैर॥

लिए चने की पोटली, निकला नंगे पाँव।
मुझसे मेरी भूख ने, छीना मेरा गाँव॥

दुनिया की इस भीड़ में, बनता वही नजीर।
लिखता अपने हाथ से, जो अपनी तकदीर॥

कलतक जो थे ढूँढते, सबके अंदर खोट।
उनकी हालत आजकल, जैसे जाली नोट॥

करना क्या था, क्या किया, चेत सके तो चेत।
समय निकलता जा रहा, ज्यों मुट्टòी से रेत॥

गिरा शाख से टूटकर, सूखा पत्ता एक।
जीवन की गति देखकर, चिंतित हुआ विवेक॥

नए दौर का आदमी, बदले ऐसे रंग।
काबिलियत को देखकर, गिरगिट भी है दंग॥

अफसर को बँगला मिला, नेताजी को ताज।
जनता के हिस्से पड़ा, ढाई किलो अनाज॥

हे अर्जुन! रणभूमि में, यही तुम्हारा धर्म।
पूरी निष्ठा से करो, केवल अपना कर्म॥

लरकोरी सिखयाँ हुईं, घूमें पिय के साथ।
बाबुल अबकी फाग में, कर दो पीले हाथ॥