"दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे | दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे | ||
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ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है। | ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है। | ||
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रोम-रोम में खिले चमेली | रोम-रोम में खिले चमेली | ||
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साँस-साँस में महके बेला, | साँस-साँस में महके बेला, | ||
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पोर-पोर से झरे मालती | पोर-पोर से झरे मालती | ||
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अंग-अंग जुड़े जुही का मेला | अंग-अंग जुड़े जुही का मेला | ||
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पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की | पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की | ||
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तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है। | तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है। | ||
− | + | दो गुलाब के फूल... | |
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छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई | छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई | ||
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बिना रंग के खेले होली, | बिना रंग के खेले होली, | ||
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यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे | यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे | ||
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नई बहू की चंदन डोली | नई बहू की चंदन डोली | ||
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जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती | जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती | ||
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ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है। | ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है। | ||
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दो गुलाब के फूल... | दो गुलाब के फूल... | ||
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जाने क्या हो गया कि हरदम | जाने क्या हो गया कि हरदम | ||
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बिना दिये के रहे उजाला, | बिना दिये के रहे उजाला, | ||
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चमके टाट बिछावन जैसे | चमके टाट बिछावन जैसे | ||
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तारों वाला नील दुशाला | तारों वाला नील दुशाला | ||
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हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे | हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे | ||
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व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है। | व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है। | ||
− | + | दो गुलाब के फूल... | |
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तुम्हें चूमने का गुनाह कर | तुम्हें चूमने का गुनाह कर | ||
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ऐसा पुण्य कर गई माटी | ऐसा पुण्य कर गई माटी | ||
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जनम-जनम के लिए हरी | जनम-जनम के लिए हरी | ||
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हो गई प्राण की बंजर घाटी | हो गई प्राण की बंजर घाटी | ||
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पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा | पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा | ||
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याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है। | याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है। | ||
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दो गुलाब के फूल... | दो गुलाब के फूल... | ||
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तुम्हें देख क्या लिया कि कोई | तुम्हें देख क्या लिया कि कोई | ||
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सूरत दिखती नहीं पराई | सूरत दिखती नहीं पराई | ||
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तुमने क्या छू दिया, बन गई | तुमने क्या छू दिया, बन गई | ||
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महाकाव्य कोई चौपाई | महाकाव्य कोई चौपाई | ||
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कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी | कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी | ||
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जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है। | जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है। | ||
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20:55, 19 जुलाई 2018 के समय का अवतरण
दो गुलाब के फूल छू गए जब से होठ अपावन मेरे
ऐसी गंध बसी है मन में सारा जग मधुबन लगता है।
रोम-रोम में खिले चमेली
साँस-साँस में महके बेला,
पोर-पोर से झरे मालती
अंग-अंग जुड़े जुही का मेला
पग-पग लहरे मानसरोवर, डगर-डगर छाया कदम्ब की
तुम जब से मिल गए उमर का खंडहर राजभवन लगता है।
दो गुलाब के फूल...
छिन-छिन ऐसा लगे कि कोई
बिना रंग के खेले होली,
यूँ मदमाएँ प्राण कि जैसे
नई बहू की चंदन डोली
जेठ लगे सावन मनभावन और दुपहरी सांझ बसंती
ऐसा मौसम फिरा धूल का ढेला एक रतन लगता है।
दो गुलाब के फूल...
जाने क्या हो गया कि हरदम
बिना दिये के रहे उजाला,
चमके टाट बिछावन जैसे
तारों वाला नील दुशाला
हस्तामलक हुए सुख सारे दुख के ऐसे ढहे कगारे
व्यंग्य-वचन लगता था जो कल वह अब अभिनन्दन लगता है।
दो गुलाब के फूल...
तुम्हें चूमने का गुनाह कर
ऐसा पुण्य कर गई माटी
जनम-जनम के लिए हरी
हो गई प्राण की बंजर घाटी
पाप-पुण्य की बात न छेड़ों स्वर्ग-नर्क की करो न चर्चा
याद किसी की मन में हो तो मगहर वृन्दावन लगता है।
दो गुलाब के फूल...
तुम्हें देख क्या लिया कि कोई
सूरत दिखती नहीं पराई
तुमने क्या छू दिया, बन गई
महाकाव्य कोई चौपाई
कौन करे अब मठ में पूजा, कौन फिराए हाथ सुमरिनी
जीना हमें भजन लगता है, मरना हमें हवन लगता है।
दो गुलाब के फूल...