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दो तिहाई ज़िन्दगी / शरद कोकास

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भुखमरी पर छिड़ी बहस
ज़िन्दगी की सड़क पर
मज़दूरी करने का सुख
कन्धे पर लदी अपंग संतान है
जो रह-रह मचलती है
रंगीन गुब्बारे के लिए

कल्पनाओं के जंगल में उगे हैं
सुरक्षित भविष्य के वृक्ष
हवा में उड़–उड़ कर
सड़क पर आ गिरे हैं
सपनों के कुछ पीले पत्ते

गुज़र रहे हैं सड़क से
अभावों के बड़े-बड़े पहिए
जिनसे कुचले जाने का भय
महाजन की तरह खड़ा है
मन के मोड़ पर

तब
फटी जेब से निकल कर
लुढ़कती हुई
इच्छाओं की रेज़गारी
बटोर लेना आसान नहीं है
मशीनों पर चिपकी जोंक
धीरे-धीरे चूस रही है
मुश्किलें हल करने की ताक़त

चौबीस में से आठ घंटे बेच देने पर
बची हुई दो तिहाई ज़िन्दगी
कई पूरी ज़िन्दगियों के साथ मिलकर
बुलन्द करती है
जिजीविषा
रोटी और नींद का समाधान ।