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दो दिन की ज़िन्दगी के मुखड़े हैं बेशुमार / शैलेन्द्र

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दो दिन की ज़िन्दगी में
दुखड़े हैं बेशुमार
है ज़िन्दगी उसी की जो
हंस-हंस के दे गुज़ार

उभरेंगे फिर सितारे
चमकेंगे फिर से चाँद
उजड़े हुए चमन में
आऐगी फिर बहार
आऐगी फिर बहार
है ज़िन्दगी उसी की जो
हंस-हंस के दे गुज़ार

है धूप कहीं छाया
यह ज़िन्दगी की रीत
है आज तेरी हर सखी
हर सांस तुझसे बस यही
कहती है बार बार
है ज़िन्दगी उसी की जो
हंस-हंस के दे गुज़ार

मारने के सौ बहाने
जीने को सिर्फ़ एक
उम्मीद के सुरों में
बजते हैं दिल के तार
है ज़िन्दगी उसी की जो
हंस हंस के दे गुज़ार

दो दिन की ज़िन्दगी में
दुखड़े हैं बेशुमार
दुखड़े हैं बेशुमार

1962