भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो बीघा खेत / निरंजन श्रोत्रिय

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:52, 22 अप्रैल 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूरी दुनिया से अलग होती
दो बीघा खेत की दुनिया

दो बीघा खेत का
सूरज अलग
हवा अलग
बादल अलग

दो बीघा खेत पर हल जोतता आदमी
दुनिया की भीड़ से अलग होता

एक जोड़ी बैल, हल और
दो बीघा खेत की दुनियादारी में फंसा वह
बेखबर है संसार में जमा हो रहे हथियारों से

अपना वोट पेटी में खोंस
घिर आये बादलों को तकता
दो बीघा खेत की सल्तनत का बादशाह
मानता है इस भूखंड को
दुनिया की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई

ममत्व से सहलाता
दो बीघा खेत में उग आये
बच्चों के गाल, पीठ और अंगुलियाँ
चूमता उनके जवान होते सुनहले माथे को

फिर अचानक एक दिन
दो बीघा खेत का मालिक
भींचकर अपना अंगूठा मुट्ठी में
कभी रोने तो कभी गरजने लगता है.