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दो सजा मुझको असंयत कामना के ज्वार पर / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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दो सजा मुझको असंयत कामना के ज्वार पर,

बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।


दो सजा मुझको-गड़ाऊँ आँख चरणों पर कभी

अनसुनी कर दो मिलन की धड़कनें मेरी सभी,


तुम अनुत्तर बन सदा मेरी पुकारों से बचो

अब न तुम मुझमें नये विश्वास का सपना रचो,


प्राण पर मेरे तुम्हारी ही झलक छाई हुई

चेतना मेरी तुम्ही में डूबी उतरायी हुई,


पंख-अधकतरा पखेरू चंद्रमा से होड ले!

चाहता आकाश का नीला सितारा तोड़ ले!


तुम न मिटने भी मुझे दो अनगहे आधार पर,

बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।


दो सजा मुझको तनिक जो आस्था मेरी गले

मर गयी जो ज्योति घुलघुल कर अगर फिर से जले,


दो सजा यदि मैं तुम्हारी छाँह को भी प्यार दूँ

यदि तुम्हारे संगदिल को एक भी झंकार दूँ ,


यदि प्रकम्पित कंठ से कुछ पास आने को कहूँ

मैं तुम्हारी एक भी मुस्कान पाने को कहूं,


दो सजा मुझको तुम्हारा नाम होठों से चुए

हाथ भी मेरा तुम्हारी बादली वेणी छुए,


चढ़ चुका अपनत्व सब मेरा पराई धार पर,

बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।


दो सजा मुझको कहूँ तुमसे मुझे बूझो तनिक

वेदना की विपुलता में तुम्हीं मुझे सूझे तनिक,


दो सजा तुमसे तनिक भी शक्ति ले जीवित रहूँ

यदि तुम्हारे आसरे दुख की तरंगों में मैं बहूँ।


आँसुओं में भी कभी माँगू सहारा स्नेह का

स्वप्न भी देखूँ तुम्हारी देव दुर्लभ देह का,


मैं तुम्हें बाँधू तरसती चितवनों में निष्पलक

दो सजा पीता रहूँ मधु स्वर तुम्हारा देर तक,


गीत लिखने को तुम्हारे दर्प की दीवार पर

बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।


मूँद दोनों नयन, दम तोड़ दो मेरा अभी

दो मुझे तुम दण्ड, है स्वीकार सिर माथे सभी,


मैं तुम्हारे रूप का उन्माद तन-मन में भरे

मैं तुम्हारी वज्रता का दर्द छाती में धरे,


यदि तुम्हें पीने लगूँ अपनी समूची प्यास भर

दो सजा मुझको-न सहने में रहे कोई कसर,


दो सजा यदि मैं तुम्हारा मन बहुत-सा घेर लूँ

दो सजा कुछ भी तुम्हारी मानता यदि फेर लूँ, पू


पूजता तुमको सुलगता दिल इसी अधिकार पर,

बिन बुलाए आ गया मैं फिर तुम्हारे द्वार पर।