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दो सूत धागा / संजय शेफर्ड

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दो सूत का धागा
जो मां ने कलाई में बांध दिया था
माता जी का प्रसाद कहकर
आज भी मेरी कलाइयों पर मौजूद है
कर्ण के कवच की तरह
वह धागा जो सिर्फ धागा सा दीखता है
वास्तव में सिर्फ धागा नहीं है
उसके रेशों में मौजूद है
आग से भी ऊंची ईश्वर के प्रति आस्था
उसके रेशों में मौजूद है
समुन्द्र की गहराइयों से भी गहरी मां की जीवंत श्रद्दा
पर मैं किसी ईश्वर पर विश्वाश नहीं करता
बल्कि इन सबसे इतर
ईश्वर के प्रति मां के अटूट विश्वास पर
विश्वाश करता हूं
और इसी विश्वास की मजबूती को
अपने विश्वास में बांधने का प्रयास करते
साझ - सवेरे जमता, पिघलता और ढलता रहता हूं
उसी एक धागे के सहारे जो मां ने मेरी कलाई पर बांधे थे
कभी - कभी अपने ज़मने
कभी - कभी अपने पिघलने और ढलने पर संदेह होता है
पर मैं जमता हूं ताकि अपने रगो में स्थिर रहूं
पिघलता हूं ताकि अपने रगो में दुनिया को महसूस कर सकूं
ढलता हूं ताकि वक़्त के साथ -साथ चल सकूं
बस उस दो सूत के धागे के सहारे जो मां ने मेरी कमर में बांधे थे।