भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दौर उफ़्तादगी / साजीदा ज़ैदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नग़्मगी गीत हर्फ़-ओ-नवा
नाला-ए-शौक़ सौत ओ सदा
एक बहरी सियासत के दरबार में
सर-निगूँ पा-ब-ज़ंजीर लाए गए
सारा सीमाब-ए-नक़द-ओ-नज़र
सब तिलिस्मात-ए-हर्फ़-ओ-हुनर
पर्दा-ए-सहर-ओ-असरार से टूट कर
मक़्तल-ए-आरज़ू बन गए
वो तरब-ज़ार-ए-दिल क़स्र-ए-ग़म
रात भर जागती आगही यानी
इक़लीम-ए-जाँ
मशीनों के खंडरात में खो गए
वो जो आहंग-ए-आलम था
ख़्वाबों का मस्कन था और हर्फ़ ओ मआनी की ततहीर था
अपनी बेदारियों की सज़ा काटने के लिए
संग ओ आहन में ढाला गया

सज्दा-ए-हक़
तमन्ना के आफ़ाक़ तक दर्द के क़ाफिले
काबा-ए-नूर तक आबला-पाई के सिलसिले
ज़र-ए-मग़रिब की मीज़ान में तुल गए

हम की इस दश्‍त में आबला-पा थे सदियों से
इस राह के संग-ए-मिल
अपने क़दमों के हमराज़ थे
हम भी इस दौर-ए-उफ़्तादगी में
बस
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते रह गए