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द्रोण मेघ / राहुल कुमार 'देवव्रत'

सारा खेल नजर का धोखा ही तो है
क्यों नहीं छिटकते रहते इंद्रधनुष के रंग
हर वक्त आकाश में?
आवरण उतरते ही दीखने लगता है
नीला मटमैला स्याह-सफेद मिश्रित आकाश
या कि इस नीले मटमैले जीवन को
क्षणमात्र के लिये ही सही
तरंगित करने के संधान का सुफल है ये

आह! है बाधा बड़ी

पुराने वक्त की आहट
अन्वेषक की भांति
संपूर्ण शरीर में ढूंढ़ ही लेती है सबसे कोमल चमड़ी
चलते-चलते पीठ पर जोर की थपकी लगाए
...और फ़ना
सरेराह पकड़ लेती है तेरी छाया
मेरे हाथ की छोटी ऊंगली सहसा
पैर से लिपट गति को बांधे साथ-साथ चाहती है चलना
चलती भी है

महत्त्वाकांक्षा के रथ पर आरूढ़ होते ही
त्यागना होता है वजन सम्बंधों का
सो तूने त्यागे
नीरस सफर की थकावट से चूर ये बोझिल आंखें
झेंपती हैं तो शरीर भी शिथिल पड़ता जाता है
डुबोकर छुपे बैठे हैं सीने को आस्तीन बनाए
टूटे ख्वाब और बेतरतीब नोकदार टुकड़े सीसे के
सहज होते ही बोध करा जाते
कि तेरा असहज रहना ही तेरा प्रारब्ध है
तिसपर बिजली-सी कौंध जाती हैं
पटल पर तेरी नीमबाज़ आंखें
भय और पीड़ा की सीमा लांघते
ये नासपीटे अब और क्या चाहते हैं मुझसे?

इन समवेत आक्रमणों से लड़ते चलना है
भीतर-ही-भीतर कई दफे ...रोजाना
टुटन की कोई अहमियत नहीं
पता है मुझे
झंडे तैयार खड़े रखे हैं कोने में
दिन निकलने को है
अलविदा!
चलो! चलते हैं फिर से नए मोर्चे पर