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द्वन्द्व / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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सूरज भी
अलसाता है
थक कर सो जाता है।
इतने विशाल उल्का की रोशनी
अंधेरा पी जाता है।
जीवन और काल
का भी
यही नाता है
एक आता है
एक जाता है
फटी बिवाइयों में
महरम लग जाता है

काम
और क्रोध में
ज़िंदगी के लोभ में
हर कोई भूल जाता है
सूरज और संध्या का
यही अटूट नाता है।

कुछ भी
रहता नहीं
कुछ भी जाता नहीं
किनारे पे
खड़े-खड़े सब बह जाता है।
आपा-धापी दौड़-धूप लूट-खसोट
दूसरे की ज़मीन पर
महल बनाते-बनाते
अपना ढह जाता है।