Last modified on 8 फ़रवरी 2019, at 16:12

द्वार पर हारा तुम्हारे / विशाल समर्पित

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:12, 8 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विशाल समर्पित |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

मैं तुम्हे कितना मनाऊँ और कितना टूट जाऊँ
किस तरह तुमसे बिछड़कर मैं प्रणय के गीत गाऊँ
आँसुओं को भी बहाकर कुछ नहीं निकला नतीजा
रात-दिन मैं ख़ूब रोया उर नहीं लेकिन पसीजा
हो सके तो रोक लो तुम मैं तुम्हे आगाह करता
आँसुओं संग बह रहे हैं आँख के सपने कुँवारे
जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

अब विरह की वेदना को झेलना संभव नहीं है
दर्द से हर मोड़ पर प्रिय खेलना संभव नहीं है
टूटने का भय, निरंतर तार इतने कस चुका हूँ
सब असंभव लग रहा है मैं भँवर में फँस चुका हूँ
मैं तुम्हारे द्वार पर प्रिय इस तरह नज़रें टिकाए
जिस तरह कोई भिखारी एकटक चौखट निहारे
जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे

इस जनम मिलना कठिन है मन नहीं यह मानता है
मन मिलन की आस बाँधे जबकि यह सब जानता है
शैल-निर्मित मूर्ति कोई क्या कभी भी गल सकी है
काल की दुर्दम्य इच्छा क्या कभी भी टल सकी है
वक़्त की हर चाल में भी हाँ बुरे इस हाल में भी
मौन हैं मेरे अधर पर मन सदा तुमको पुकारे
जीतकर संसार सारा द्वार पर हारा तुम्हारे