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द्वितीय अध्याय / श्वेताश्वतरोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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युञ्जानः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः।
अग्नेर्ज्योतिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरत्॥१॥

अति प्रथम सृष्टा मन हमारी बुद्धि को पावन करे,
हों बाह्य विषयासक्ति निवृति और सत्य स्थापन करें
जिससे हमारी इन्द्रियों की शक्ति अंतर्मुख रहे,
पार्थिव पदार्थों से विमुख, पर ब्रह्म से आमुख रहे॥ [ १ ]

युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।
सुवर्गेयाय शक्त्या॥२॥

परमेश की आराधना मय, यज्ञ में मन लीन जो,
मन के ही द्वारा परम सुख , आनंद मय परब्रह्म भजो
आराधना में मन लगे, और प्रार्थना विभु की करें.
हम सब यथा शक्ति सतत , अभ्यर्थना प्रभु की करें॥ [ २ ]

युक्त्वाय मनसा देवान् सुवर्यतो धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्॥३॥

जो व्योम में स्वर्गादि लोकों में गमन करते सदा,
ज्योति विकीरण वे करें , देवें सहारा सर्वदा.
मन बुद्धि को संयुक्त हे सविता !हमारी वे करें,
आलस्य निद्रा , ध्यान के जो विघ्न हैं वे सब हरें॥ [ ३ ]

युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः॥४॥

जिस परम ब्रह्म में विप्र अपनी , बुद्धि करते प्रवृत हैं
अग्नि होत्र व् स्वस्ति वृतियों में चित्त जिनका नियत है.
ऐसे विचारक चिंतकों से हम करें स्तुति वही,
जिस सर्वव्यापी , अज्ञ ब्रह्म की महिमा न जाती कही॥ [ ४ ]

युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥५॥

मन बुद्धि के स्वामी तथा अति आदि कारण सृष्टि के,
पुनि नमन में संयुक्त ब्रह्म से , और याचक दृष्टि के.
इस श्लोक स्तुति पाठ से , शुभ कीर्ति का विस्तार हो ,
अमर ब्रह्म के पुत्र भी सब सुनें इसका प्रसार हो॥ [ ५ ]

अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र सञ्जायते मनः॥६॥

ओंकार के जप ध्यान द्वारा, ब्रह्म रूपी अग्नि को ,
ज्योतित प्रकाशित जब करें, तब विजित करते विध्न को.
विधिवत निरोध हो प्राण वायु का, सोम रस आनंद हो ,
उस स्थिति में सर्वदा मन शुद्ध , शेष भी द्वंद हों॥ [ ६ ]

सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम्।
यत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूर्तमक्षिपत्॥७॥

अति आदि कारण ब्रह्म ही, सृष्टा है सारी सृष्टि का
साधक करे आराधना तो पात्र हो शुभ दृष्टि का.
फ़िर पूर्व साँची कर्म न बाधक हों जड़ता शेष हो,
यदि सर्व आश्रय लीन ऋत साधक की दृढ़ता विशेष ॥ [ ७ ]

त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरं हृदीन्द्रियाणि मनसा सन्निवेश्य।
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयानकानि॥८॥

साधक गला, सिर और छाती, तीनों को उन्नत रखे,
करे सीधा और स्थिर शरीर व् इन्द्रियों में सत रखे.
फ़िर इन्द्रियों को मन के द्वारा हृदय में संचित करे,
ओंकार की नौका से दुष्कर , भव प्रवाहों से तरे॥ [ ८ ]

प्राणान् प्रपीड्येह संयुक्तचेष्टः क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छ्वसीत।
दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान् मनो धारयेताप्रमत्तः॥९॥

आहार और विहार भी साधक के समुचित योग्य हों ,
प्राणायाम से प्राण सूक्ष्म व् उच्छ्वास के योग्य हों.
तब दुष्ट घोडों से युक्त रथ, ज्यों सारथी वश में करे,
त्यों योग्य साधक इन्द्रियों को , साध मन वश में करे॥ [ ९ ]

समे शुचौ शर्करावह्निवालिका विवर्जिते शब्दजलाश्रयादिभिः।
मनोनुकूले न तु चक्षुपीडने गुहानिवाताश्रयणे प्रयोजयेत्॥१०॥

हो ध्यान स्थल सुखद शीतल, शुद्ध, समतल, शांत भी.
अति, शुचि, मनोरम, सौम्य बहु, हों दृश्य सुखदायक सभी .
बहु अग्नि बालू और कंकड़, वायु शून्य गुहा न हो.
बहु लोग आश्रय, आगमन, व्यवधान और जहाँ न हो॥ [ १० ]

नीहारधूमार्कानिलानलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्।
एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे॥११॥

कोहरा, धुआं, रवि, वायु, अग्नि व् स्फटिक, मणि शशि कभी,
जुगनू व् बिजली के समानान्तर हो दृश्यों के सभी.
पुनरावृति योगी को हो, जो ब्रह्म योग में लीन हैं,
ये सफलता के चिन्ह, योगी ऋत दिशा तल्लीन है॥ [ ११ ]

पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्॥१२॥

आकाश, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, ये पाँचों तत्व का.
साधक में जब उत्थान और अधिकार होता सत्व का.
उस योग अग्निमय देह में , कभी रोग का न प्रवेश हो.
न ज़रा, न मृत्यु असमय , इच्छा शक्ति विशेष हो॥ [ १२ ]

लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादः स्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति॥१३॥

आरोग्य जड़ता , हीनता, हर्षित हृदय व् प्रफुल्लता,
विषयासक्ति की निवृति, वाणी में मृदु स्वर मृदुलता.
देह में हो गंध सुरभित, वर्ण की उज्जवलता
अविकारी होवें सिद्ध , जब हो सिद्धिओं की बहुलता॥ [ १३ ]

यथैव बिंबं मृदयोपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत् सुधान्तम्।
तद्वाऽऽत्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः॥१४॥

यदि रत्न आवृत मृत्तिका से तेजहीन लगे यथा,
धुलकर प्रकाशित हो यदि निज रूप में आता तथा.
वैसे ही यदि जीवात्मा को, आत्म तत्व प्रत्यक्ष हो,
कैवल्य पा हो कृतार्थ निश्चय ब्रह्म उसको प्रत्यक्ष हों॥ [ १४ ]

यदात्मतत्त्वेन तु ब्रह्मतत्त्वं दीपोपमेनेह युक्तः प्रपश्येत्।
अजं ध्रुवं सर्वतत्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपापैः॥१५॥

अथ आत्म तत्व के द्वारा योगी, जानते ब्रह्मत्व को,
नहीं इन्द्रियां हैं समर्थ किंचित, ब्रह्म के प्रत्यक्ष को.
यदि जान ले ध्रुव ऋत अजन्मा महिमामय परमात्मा,
पुनि - पुनि जनम और मृत्यु भय से, मुक्त हो जीवात्मा॥ [ १५ ]

एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥१६॥

परब्रह्म परमेश्वर ही निश्चय, सब दिशाओं में व्याप्त है,
अति आदि कारण, आदि सृष्टि का और उसी में समाप्त है.
वही सर्वतोमुख हिरण्यगर्भा और अन्तर्यामी है,
ब्रह्माण्ड रूपी गर्भ स्थित, त्रिकाल दर्शी स्वामी है॥ [ १६ ]

यो देवो अग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।
य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः॥१७॥

परब्रह्म जो परमात्मा, अग्नि में है, जल में वही,
विश्वानि लोकों में प्रतिष्ठित, गरिमामय मंडित मही.
है वनस्पति औषधि में भी, सत्ता उसी सम्राट की,
पुनि - पुनि नमन महिमा यही, उस विश्व रूप विराट की॥ [ १७ ]