धनि वै जिन प्रेम सने पिय के उर मे रस बीजन बोवती हैँ ।
धनि वै जिन पावस मे पिसिकै मेँहदी कर कँज मलोवती हैँ ।
धनि वै जिन सूरत साजि सजै हम लाज कै बोझ को ढोवती हैँ ।
धनि वै धनि सावन की रतियाँ पति की छतियाँ लगि सोवती हैँ ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।