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धरती और आकाश / दिनेश कुमार शुक्ल

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अभी सो रही है धरती
अँधेरे की चीकट रजाई में
गुंधाती हुई पूस की रात में

पहाड़ नदी झरने
बांस घास जंगल
हाथी खरगोश गिलहरी
नींद में कुनमुनाते
सब उसकी गोद में

धीरे से
नीचे झुक आता है आकाश
और अपनी टिमटिमाती
हजार आँखों से
छूता है धरती को

कि जग पड़ता है कोई झरना
सरसरा उठते हैं बांस
या चौंक पड़ती है कोई गिलहरी
और फिर ऊपर चुपचाप
खिसक जाता है आकाश
और
वात्सल्य में सराबोर होकर
मुस्कुराता है

अभी-अभी ही तो
सोई है धरती
घर भर को खिला पिलाकर
पहली गहरी झपकी में

पूरा नहीं पड़ता है सबको --
न झरने के गीत को पानी
न बांस को बारिश
न हाथी को मेघों का गर्जन
न पर्वत को बिजली का खेल
न गिलहरी को राम की उंगलियाँ
आकाश कितना भी करे
कम पड़ जाता है

जानती है धरती कि
जी तोड़ मेहनत करता है
आकाश
पर इस मंहगाई में
वह कितने भी बादल कमाये
न होता है उनमें पानी
न हवा, न गर्जन, न बिजली
और राम जी --
राम जी तो भूल ही गये हैं,
गिलहरी को

इतनी मेहनत के बावजूद
दिन प्रतिदिन
बादलों की कीमत कमती है
कमती ही जाती है
और धरती आकाश के बीच
दिन भर की
किच-किच के बाद
एक खाई गहराती है
गहराती जाती है

और इस खाई को रात
सिर्फ रात
वो भी तैर कर
पार कर पाती है।