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धरती बतियाती है / शीला पाण्डेय

फूली सरसों वाली चादर
ओढ़े हरियाती है
धरती गुन-गुन, मह-मह गाती
क्या-क्या बतियाती है!

तन-मन रचती मीठी पाती
बाँच रहे हम सुबहो-शाम
चहुँदिश कुहरे से लिपटे जब
पेड़, बाग धुँधलाते आम

आँगन की मन कामिनी-पत्ती
कम—सी हरियाती हैै।

दूब घास पर मोती टाँके
कढ़ी रजाई जैसे
भरे कँपकँपी जाड़ा ऐसा
खेल-खेलाई कैसे

मुनिया बड़ी देर से रोये-रोये
रिरियाती है।

मदिर-मदिर दिन हुआ बसंती
धरती फिर अँगड़ाई
दूब सुनहरी धूप ओढ़ केे
मंद-मंद मुस्काई

तितली, भौरे घूँघट खोलें
चम्पा मिठियाती है

बादल रूई फाग उड़ाता
हवा लपक पड़ती है
रूप सुनहरा उषा धारती
निशा झगड़ पड़ती है

धरा कसीदाकारी चुनरी
पहने लड़ियाती है