भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धरती बोली / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:45, 29 जून 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



‘मैं सूरज हूँ’- बड़े गर्व से पहाड़ी पर सूरज बोला
मैंने ही तुम्हारे धरातल जीवन, पोषण रस घोला
‘मैं धरिणी हूँ’- विनम्र भाव से धरती बोली
जीवन धारण क्षमता मेरी है, क्यों करते ठिठोली

अंगारे हो जलते रहना धर्म तुम्हारा
मेरे जलनिधियों में क्या है योगदान तुम्हारा

तुम्हारी परिधि की लाज रखी- ये संस्कार मेरा
मेरे कारण उपजे जीवधारी करते तुम्हारा फेरा

मेरे बिन तुम भी कुछ नहीं ये दंभ तुम छोड़ो
अंकुरण-जीवन मुझमें है पोषक मात्र हो तुम तो

अंकुरण न होता तो किसका पोषण करते
किस पर भौहें चढ़ाते, कैसे जीवनदाता कहलाते

छोड़ो विवाद, तुम समर्थ और मैं सशत्तफ़
आओ मिलकर धर्म निर्वहन करें अंकुरण-पोषण

विवादों से कब क्या मिला है जो अब मिलेगा
संघर्ष नहीं, सृजन करें, तब ही सार्थक जीवन होगा 