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धरीक्षण मिश्र / परिचय

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धरीक्षण मिश्र : जीवन एवं सृजन / डॉ. वेद प्रकाश पाण्डेय


भोजपुरी के सिद्ध एवं विलक्षण कवि पण्डित धरीक्षण मिश्र का जन्म संवत 1958 के चैत मास की राम नवमी (तदनुसार सन 1901 ई.) को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर (अब कुशीनगर) जनपद के एक गाँव में बरियापुर में हुआ था। मिश्र जी के पिता का नाम श्री जगदेव मिश्र तथा माता का नाम श्रीमती फूलकली था। उनके पिता एक प्रतिष्ठित किसान थे। यद्यपि उस समय शिक्षा का प्रचार-प्रसार बहुत कम था, तथापि वे अपने पुत्र को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते थे। धरीक्षण मिश्र की प्रारम्भिक शिक्षा तमकुही में, मिडिल की पडरौना में तथा माध्यमिक की बनारस में हुई। उन्होंने 1926 में बनारस के 'लन्दन मिशन हाई स्कूल' से हाई स्कूल उत्तीर्ण किया।

धरीक्षण मिश्र एक कुशाग्र-बुद्धि संपन्न विद्यार्थी थे। वे अपने सुयोग्य अँग्रेज़ प्रधानाध्यापक मि० डब्ल्यू० डी० पी० हिल से बहुत प्रभावित थे। उनके सम्पर्क से उनमें जो विद्यानुराग पैदा हुआ, वह आजीवन बना रहा।

मिश्र जी का विवाह बिहार प्रान्त के पश्‍चिमी चम्पारण जनपद में बिरती गाँव के श्री हृदयापति तिवारी की पुत्री श्रीमती देवराजी देवी से हुआ था। पण्डित धरीक्षण मिश्र के भाई का नाम श्री सत्यनारायण मिश्र और एकमात्र पुत्र का नाम श्री तप्पा मिश्र था। तप्पा मिश्र के तीन पुत्र हैं - कैलाशनाथ मिश्र, अमरनाथ मिश्र और दिनेश मिश्र। धरीक्षण मिश्र का परिवार हर तरह से भरा-पूरा है।

धरीक्षण मिश्र ने हाई स्कूल करने के पश्चात अपने घर पर रह कर आजीवन खेती-बारी की, स्वाध्याय और लेखन का कार्य किया। परिजनों की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने नौकरी नहीं की। वे एक स्वतन्त्र-चेता व्यक्ति थे। इस अर्थ में उनका स्वाभिमान इस सीमा तक अनूठा और विलक्षण था कि उन्होंने कभी ट्रेन या बस का टिकट स्वयं अपने हाथों नहीं लिया। इस कार्य के लिए उनके साथ एक सहायक होता था। उनकी मान्यता थी कि ऐसा करने से टिकट देने वाले के सामने हाथ पसारना पड़ता है। उसका हाथ ऊपर और अपना हाथ नीचे होता है। उन्होंने देना सीखा था, लेना नहीं। इस व्यवहार-व्यापार का उन्होंने जीवनपर्यन्त पालन किया। यहाँ तक कि अपने पड़ोसी और उदारमना तत्कालीन तमकुही नरेश इन्द्रजीत प्रताप बहादुर साही के प्रबल आग्रह पर भी उन्होंने ज़मीन-जायदाद न माँग कर मानस-पीयूष की प्रतियाँ माँगी थीं, जिन्हें पढ़ने के उपरान्त उन्होंने राज-ग्रन्थाकार को वापस कर दिया था।

लम्बा एवं सक्रिय जीवन जीते हुए सत्तानवे वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण नवमी तदनुसार 24 अक्टूबर, 1997 ई० को मध्याह्न में अपने परिजनों के बीच उन्होंने अन्तिम साँस ली। मृत्यु के समय वे एकदम शांत एवं निरुद्विग्न थे। कहना न होगा कि निधन के दो घण्टे पूर्व उन्होंने अपने दाह-संस्कार और श्राद्ध-कर्म पर परिजनों को कतिपय निर्देश दिए और 20 मिनट पहले, अचेत होने के क्रम में एक पुस्तिका पर 'हरे राम' लिखा था। इसे संयोग ही कहेंगे कि नवमी को ही उनका जन्म भी हुआ था।

पं. धरीक्षण मिश्र का व्यक्तित्व शांति, श्रम, सादगी, सरलता, सहजता और उदारता से परिपूर्ण था। सभी धर्मों के प्रति उनके मन में सम्मान का भाव था। परहित उन्हें प्रिय था। दीनजनों के प्रति उनके मन में अपार करुणा थी। दलितों के उत्थान के प्रति वे बड़े बेचैन व चिंतित रहते थे। अस्पृश्यता के विरोधी थे। प्रदर्शन, पाखंड और ढोंग आदि से वे कोसों दूर थे। उनके मन में सत्य के प्रति प्रबल आग्रह था। अपने संपूर्ण जीवन में शायद ही कभी उन्होंने असत्य कथन किया हो। बाढ़ के विप्लव के कारण जल, भयंकर अग्नि-कांडों के कारण आग तथा बागों-फसलों को हानि पहुँचाने के कारण बंदरों को वे देवकोटि में स्वीकार नहीं करते थे। अध्ययन के छह वर्षों में-वाराणसी के अपने छात्र-जीवन में-उन्होंने कभी भक्तिभाव के साथ गंगा-स्नान नहीं किया। कभी किसी देवालय में नहीं गए। उनका जोर आंतरिक शुचिता पर था। तर्क की कसौटी पर कसे बिना वे किसी बात पर विश्वास नहीं करते थे। मनुष्य की गरिमा का प्रबल पक्षधर होने के कारण वे गैर-बराबरी को कभी सहन नहीं कर पाते थे।

धरीक्षण मिश्र सादगी की प्रतिमूर्ति थे। इस अर्थ में उन्हें पक्का गाँधीवादी कहा जा सकता है। गाँधीवाद को उन्होंने अपने जीवन में उतारा था, वह मात्र उनके चिंतन तक सीमित हो-ऐसा न था। कम-से-कम में बसर करना उनका स्वभाव था। घर के समीप अपने हाथ से लगाए बगीचे में फूस की झोपड़ी में न्यूनतम वस्तुओं के साथ रहना उन्हें पसंद था। मिश्र जी का खान-पान सादा था। वे शाकाहारी होने के साथ-साथ एकाहारी भी थे। भोजन में दूध-दही उन्हें पसंद न था। फलों के शौकीन थे।

गाँधी जी से प्रभावित होने के नाते 1930 से उन्होंने सिला हुआ वस्त्र पहनना छोड़ दिया था। वे घुटनों तक की एक धोती और एक गमछा का प्रयोग करते थे। घर के बच्चों की कॉपियों के शेष बचे पन्नों का उपयोग वे शब्दार्थ और कविताएँ लिखने में कर लेते थे। मितव्ययिता उनके स्वभाव का अंग बन गई थी।

वे समय के बड़े पाबंद थे। एक-एक पल का सदुपयोग करना उन्हें पसंद था। वे जीवन में कठोर अनुशासन के हिमायती थे। प्रात:काल का उनका समय स्वाध्याय में बीतता था। नियमित रूप से नित्य सबेरे लगभग चार घंटे तक वे बाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस और उसके कतिपय अंग्रेजी अनुवाद, डिस्कवरी ऑफ इंडिया, अमरकोश और सिद्धांत कौमुदी का पाठ करते थे। यही उनकी पूजा थी। दिन में बाग और खेतों में, कभी अकेले कभी मजदूरों के साथ काम करते थे। दोपहर में स्नान-भोजन के उपरांत संक्षिप्त विश्राम, फिर स्वाध्याय और लेखन का क्रम शुरू होता था। सांयकाल देर तक लिखते रहते थे। अधंकार हो जाने तक यह क्रम चलता। उस वक्त किसी का आना और बात करना उन्हें पसंद न था। हाँ, किसी जिज्ञासु विद्यार्थी के आने पर खुश होते और लिखना बंद कर के उसे पढ़ाना आरंभ कर देते थे। स्वाध्याय के बल पर उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर विशेष अधिकार प्राप्त कर लिया था।

धरीक्षण मिश्र का संपूर्ण जीवन प्रकृति के मुक्‍त वातावरण में व्यतीत हुआ। उनके दीर्घायु होने का एक कारण यह भी हो सकता है। वे कायिक दृष्टि से कमजोर-से दिखते जरूर थे, किंतु थे सबल और स्वस्थ। पैदल बहुत चलते थे। कवि-सम्मेलनों में भाग लेने के लिए सत्तर वर्ष की आयु तक तीस से चालीस कि.मी. तक की यात्रा पैदल ही कर जाते। बस या ट्रेन की यात्रा वे बड़ी विवशता में ही करते थे। बीमार शायद ही कभी रहे हों। प्रकृति और प्राकृतिक चिकित्सा में विश्वास करते थे। दवा का प्रयोग नहीं के बराबर। उपवास करने में उनकी बराबरी सिर्फ गाँधी जी से ही की जा सकती है। कुल मिला कर, उनका जीवन एक तपस्वी जीवन था - एक सच्चे साधु का, एक आदर्श गृहस्थ था।

काव्य की ओर उनका झुकाव विद्यार्थी जीवन से ही हो गया था। छोटी-छोटी तुकबंदियाँ करने लगे थे। तमकुही रियासत घर के निकट थी। मिश्र जी का वहाँ आना-जाना प्राय: लगा रहता था। रियासत का ग्रंथालय बड़ा समृद्ध था। उन्हें पढ़ने के लिए प्रचुर सामग्री सुलभ थी। राज के पुस्तकालय में अपने समय की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका सुविका आती थी। इसके संपादक कविवर गया प्रसाद शुक्ल 'सनेही' थे। धरीक्षण मिश्र 'सनेही' जी से बड़े प्रभावित थे। सुकवि के लिए वे अपनी रचनाएँ भेजते और 'सनेही' जी से रचनाओं को ससम्मान छापते थे।

रियासत में दो बड़े प्रतिभावान लोग थे। एक थे राजा साहब के सचिव बाबू कोदई राय और दूसरे थे संस्कृत पाठशाला के प्रधानाध्यापक, पारिजातहरणम्‍ संस्कृत माकाव्य के प्रणेता कविपति पं. उमापति द्विवेदी। दोनों ही धरीक्षण मिश्र के स्नेही और प्रशंसक थे। धरीक्षण मिश्र की काव्य-कला के सुविकास में उक्त दोनों महानुभावों का बड़ा योगदान है।

सांस्कृतिक दृष्टि से तमकुही रियासत की बड़ी प्रतिष्ठा थी। यहाँ आए दिन तरह-तरह के समारोह आयोजित होते रहते थे। प्रतिवेशी और राजा का प्रिय कवि होने के नाते कविवर धरीक्षण मिश्र की कविताओं का पाठ, रियासत के कार्यक्रमों में प्राय: हुआ करता था। इसलिए रियासत और आस-पास में उनकी काफी ख्याति हो गई थी। रियासत द्वारा समादृत होने के आधार पर लोग उन्हें राजकवि मानने लगे थे, यद्यपि मिश्र जी ने स्वयं को कभी राजकवि नहीं माना।

पं. धरीक्षण मिश्र की काव्य-प्रतिभा का विकास धीरे-धीरे हुआ। तुकबंदियों, समस्यापूर्तियों और तात्कालिक परिस्थितियों-संदर्भों पर आशु कविताई के स्थान पर वे कविता के गहन कांतार में प्रवेश कर गए। उनकी लेखनी मुखर हुई। वे जीवन के व्यापक संदर्भ से जुड़कर रचना-कर्म में प्रवृत हुए। उन्होंने अपने समय को बड़ी सावधानी और सूक्ष्म दृष्टि से देखा। राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों के वे लंबे समय तक साक्षी रहे। इन परिवर्तनों का उनके संवेदनशील मन पर गहरा असर पड़ा। यही कारण है कि उनका काव्य-क्षेत्र बड़ा विस्तीर्ण होता गया और उसकी काव्यात्मक परिणति बड़ी गंभीर। मिश्र जी की प्रकृत काव्य-भूमि थी व्यंग्य। राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन की शायद ही कोई विद्रूपता ऐसी हो, जो उनकी पैनी दृष्टि से बच पाई हो। सच्चे व नैतिक जीवन के पक्षधर कविवर मिश्र उस विद्रूप से तिलमिला उठते थे। यही कारण है कि उन्होंने गंभीर और शिष्ट हास्य तथा तीक्ष्ण व्यंग्य के ब्याज से भोजपुरी साहित्य को जो उत्कर्ष प्रदान किया है, वह अतुलनीय और स्पृहणीय है।

उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम थी भोजपुरी और विधा थी व्यंग्य। इस क्षेत्र में वे अपना शानी नहीं रखते।

वे काव्य में छंदों व अलंकारों के आग्रही थे। हिंदी के प्रसिद्ध आचार्य कवि केशवदास और सेनापति उनके प्रिय कवि थे। इन दोनों का उनके कवि-मानस पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। उन्होंने हिंदी में प्रचलित प्राय: सभी अलंकारों का उपयोग करते हुए भोजपुरी में स्वरचित लक्षण-उदाहरण देकर अलंकारशास्त्र की रचना की है। ऐसे अलंकारों की कुल संख्या एक सौ चालीस है। इनमें शब्दालंकार एवं अर्थालंकार दोनों हैं। इन प्रचलित अलंकारों के अतिरिक्त उन्होंने कुछ नवीन अलंकारों की भी सृष्टि की है। इस प्रकार भोजपुरी में अलंकारशास्त्र की रचना करने वाले वे कदाचित प्रथम आचार्य हैं।

छंदों पर कविवर मिश्र का बेजोड़ अधिकार है। उनकी रचनाओं में संस्कृत एवं हिंदी में प्रचलित अधिकांश छंदों का प्रयोग हुआ है। संस्कृत के कठिनतर समझे जाने वाले छंदों-विद्युन्माला, वंशस्थ, शशि-बदना, शूर, मालिनी, भुजंग प्रयात, इंद्रवज्रा और निधि आदि के भोजपुरी में सफल प्रयोग पंडितजनों को भी विस्मित करने वाले हैं। संस्कृत में उनकी गति अद्‍भुत थी। संस्कृत के शब्दों और धातुओं के रूपों को आधार बनाकर उन्होंने भोजपुरी में कुछ ऐसी रचनाएँ की हैं, जिसका आनंद संस्कृत और उसके व्याकरण के विज्ञजन ही पा सकते हैं। संस्कृत-व्याकरण, अलंकार-प्रयोग और शब्द कौतुक के कारण उनकी कविता कहीं-कहीं काफी दुरूह हो गई है और सामान्य श्रोता या पाठक की पहुँच से दूर भी।

धरीक्षण मिश्र स्वभाव से बड़े संकोची, स्वाभिमानी और निस्पृह थे। अपनी रचनाओं के प्रति बेपरवाह भी। उन्होंने अपनी रचनाओं के प्रकाशन में कभी कोई रुचि नहीं ली। उनके बारे में कहा जाता है कि वे 'छपाने' से ज्यादा 'छिपाने' में विश्‍वास करते थे। इस कारण लंबे समय तक वे संपर्क में आने वाले सहृदय जनों और कवि-मंचों से सीमित लोक तक ही पहुँच सके। अप्रकाशित रह जाने के कारण विलंब तक उनकी पहुँच साहित्य के व्यापक सुधी समाज तक नहीं हो पाई थी। उनकी हीरक जयंती पर उनके प्रशंसकों - पं. सुदामा शुक्ल और पं. केदार नाथ मिश्र के सौजन्य से उनका पहला काव्य-संग्रह शिव जी के खेती (1977) प्रकाशित हुआ। बाद में इन पंक्तियों के लेखक के प्रयास से दूसरा संग्रह कागज के मदारी छपा-1995 में। उनके न रहने पर उन्हें चाहने वालों ने बाद में उनका सारा वाड़्मय प्रकाशित कराया धरीक्षण मिश्र रचनावली के रूप में-चार खंडों में। इसमें उनकी खड़ी बोली की रचनाएँ भी हैं, जिनकी संख्या स्वल्प है।

साहित्य-कर्म के लिए उन्हें समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित-पुरस्कृत किया गया। इस प्रसंग में 'प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन' में उन्हें दिया गया 'सेतु सम्मान' (1995), और 'साहित्य अकादेमी' नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त 'भाषा-सम्मान' (1997) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

मिश्र जी के शुभेच्छुओं-प्रशंसकों ने उनकी साधनास्थली (कवि की प्रिय वाटिका) में उनके स्मारक के रूप में भव्य प्रस्तर-मूर्ति की स्थापना कर उनके प्रति अपना गहरा राग-भाव व्यक्त किया है। कवि के जन्म-दिन (चैतमास की रामनवमी) पर 1993 से प्रति वर्ष मध्याह्न में एक विशिष्ट साहित्यिक आयोजन होता है। प्रसन्नता की बात है कि यह क्रम कवि के लोकांतरण (1997) के पश्‍चात भी श्रद्धासंबलित-स्वत:स्फूर्त जन-सहयोग से अविच्छिन्न रूप से चलता जा रहा है।

भोजपुरी के प्रथम आचार्य-कवि धरीक्षण मिश्र की साहित्य-यात्रा भोजपुरी अंचल की संपूर्ण संस्कृति उद्‍भाषित हो उठी है।