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धर्म / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

अपने अपने
धर्म के
चप्पे...
अपने-अपने
धर्म की
उंगलियाँ
हम चाट-चाट
कर खा रहे हैं...।

स्वाद-स्वाद में
पता नहीं चलता-
किसकी उंगलियाँ-
किसका भेजा
और किसका जगर
हम उडा रहे हैं...
हम अपना धर्म निभा रहे हैं।

अच्छा होता
कोई धर्म
न होता!
अच्छा होता-
कोई अपना
न होता-
अपना न होता
तो कोई पराया
नहीं होता...।

कोई धर्म
न होता तो
ईश्वर न होता
और ईश्वर न
होता तो धर्म
के नाम पर
शहर-शहर पर
कहर
न होता...।