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धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला / गुलाब खंडेलवाल

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धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला

बीत गया दिन गाते-गाते
मधुर स्वरों के महल उठाते
श्रोता एक-एक कर जाते
उखड़ रहा है मेला
 
डूब रही है किरण सुनहरी
बढ़ी आ रही तम की लहरी
आगे एक गुफा है गहरी
जाना जहाँ अकेला
 
कल जो इस तट पर आयेगा
मेरा दर्द समझ पायेगा!
क्या कोई कल दुहरायेगा
यह गायन अलबेला?

धीरे-धीरे उतर रही है मेरी संध्या-वेला