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धीरे-धीरे / विजयशंकर चतुर्वेदी

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घर नहीं कहता अलविदा
धरती भी नहीं
धीरे-धीरे ही लुप्त होता है सब कुछ
झड़ते रहते हैं पत्ते
सफ़ेद होते रहते हैं बाल
बदलती रहती है अपना रंग खाल
धीरे-धीरे

सबसे छोटी उँगली पैर की
मालूम होती है चोट लगने पर ही
माटी के सकोरे और कुल्हड़
होते रहते हैं आलों से गायब
चौखटों में चौड़ी होती रहती हैं दरारें

ऐसे ही जाते हैं महानगर धँसते
इँच-दर-इँच सागर में
हम नही टोहते अपना अक्स डूबते शहरों में
प्राचीन किले बन्द कर देते हैं खींचना अपनी ओर
नहीं रह जाती दिलचस्पी ---
दादा के एलबम से झाँकते अम्मा के छुटपन में
रूठते ही चले जाते है रंग
बदलता रहता है जीने का ढंग
गिरगिट होता रहता है मन
और हम कह देते हैं ख़ुद को अलविदा
धीरे-धीरे
घर नहीं कहता अलविदा
धरती भी नहीं।