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धुँआ (3) / हरबिन्दर सिंह गिल

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इन बादलों की गरज बहुत भयानक है,
बिजली की कड़क इनके सामने बहुत मद्धम है ।
ये सिर्फ दहलाते नहीं हैं, दिलों को
रोक देते हैं, धड़कन हर उस परिवार की
हर उस गली-कूचे की, कस्बे की
हर उस शहर की, जिस पर गिरती है
यह भयानक बिजली संकीर्णता की ।

इन बादलों की बरसात बहुत भयानक है
नदियों की बाढ़ इनके सामने बहुत मद्म है ।
ये सिर्फ अस्त-व्यस्त नही करते हैं, जीवन को
खत्म कर देते हैं, भविष्य हर उस परिवार का
हर उस बच्चे का, हर उस माँ-बाप का
हर उस भाई-बहन का, जिस पर बरसते हैं
ये भयानक बादल प्रतिशोध के ।

इन बादलों का तूफान बहुत भयानक है
धरती का भूचाल इनके सामने बहुत मद्धम है ।
ये सिर्फ तोड़-फोड़ नही करते जीवन में
चूर-चूर कर देते हैं, खुशियाँ हर उस परिवार की
हर उस समाज की, हर उस जाति की
हर उस धर्म की, जिस पर गिरता है
ये भयानक तूफान विघटन का ।

इतना ही भयानक स्वरूप है
यदि इन आतंकवाद के बादलों का
बादल जो बनते नहीं, बनाएं जाते हैं
क्यों नहीं खत्म कर देते, हर उद्गम को
जहां से उठता है, यह धुँआ विनाशकारी ।

परन्तु यह इतना आसान नहीं है
क्योंकि वह ओढ़े हुए, एक श्वेत चादर
जिस पर लिखा है, धर्म संकट में है ।
अब मैं संकट मे पड़ गया हूँ ।
कैसे कहूँ, यह चादर तो आडम्बर है
धुएं के कालिख से मैली हुई पड़ी है ।

कैसे कहूँ , यह चादर तो सफेद नहीं है
खून के रंग में रंगी हुई है ।

कैसे कहूँ , यह चादर तो मानवता की ओढ़नी नहीं है
यह तो समेटे हुए है, गुनाह अपने आँचल में ।

यदि कहता हूँ, यह सब जो कुछ कहा है
इस श्वेत धार्मिक चादर के विपरीत
मै एक धर्म विरोधी कहलाता हूँ
समाज में लज्जित किया जाता हूँ

फिर क्यों करूं विरोध इस चादर का
क्यों न कहूँ, यह चादर
चाँद की चाँदनी और दूध सी साफ है
और मान लूँ, यह भयानक बादल नहीं हैं
यह तो अगरबत्ती से निकला एक धुआं है ।