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धुँआ (5) / हरबिन्दर सिंह गिल

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यह धुआँ बहुत कोलाहल मचाता है ।
शायद धर्म-प्रहरी समझते हैं
जब तक धर्म पुस्तकों के सन्देश
सड़को पर न लाया जाए
इन्हे जुलूस का रूप न दिया जाए
इन्हे दीवारों पर अंकित न किया जाए
ये अधूरे हैं, शायद भगवान को सुनते नहीं हैं ।

फिर क्यों न इन संदेशों को लेकर
भगदड़ मचायी जाए गली-गली में
शहर-शहर में, प्रांत-प्रांत में
अगर हो सके तो पूरे देश में
फिर भी तसल्ली न हो
इसे विश्व मंच पर सुनाया जाए ।

हाथों में नहीं होने चाहिए,
ये बेसुरे बाजे या ढोलक
होने चाहिए ये हाथ सजे
तलवारों और ढालों से
या हाथ में हो, लट्ठ और छड़
या फिर जुलूस की ख़ुशी का
धमाका होता हो बंदूकों से
तभी कहीं ये सन्देश धर्म-पुस्तकों के
सुने जाएंगे, भगवान के घर में ।
क्योंकि वह बहरा है
उसे बोलने से नहीं सुनता
जब तक न मचाया जाए कोलाहल ।