Last modified on 3 फ़रवरी 2011, at 19:21

धुँध से ढँकी हुई / अज्ञेय

धुँध से ढँकी हुई
कितनी गहरी वापिका तुम्हारी
कितनी लघु अंजली हमारी ।

कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई
छाया जब-तब दिख जाती है,
उत्कण्ठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है-
बिजली की जलती रेखा-सी
कण्ठ चीरती छाती तक खिंच जाती है ।
फिर और प्यास तरसाती है,
फिर दीठ
धुँध में फाँक खोजने को टकटकी लगाती है ।
आतुरता हमें भुलाती है
        कितनी लघु अंजली हमारी,
       कितनी गहरी यह धुँध-ढँकी वापिका तुम्हारी ।

फिर भरते हैं ओक,
लहर का वृत्त फैल कर हो जाता है ओझल,
इसी भाँति युग-कल्प शिलित कर गए हमारे पल-पल
-वापी को जो धुँध ढँके है, छा लेती है
गिरि-गह्वर भी अविरल ।
किंतु एक दिन खुल जाएगा
स्फटिक-मुकुर-सा निर्मल वापी का तल,
आशा का आग्रह हमेम किए है बेकल-
        धुँध-ढँकी
         कितनी गहरी वापिका तुम्हारी,
        कितनी लघु अंजली हमारी ।

किन्तु नहीं क्या यही धुँध है सदावर्त
जिस में नीरन्ध्र तुम्हारी करुणा
बँटती रहती है दिन-याम ?
कभी झाँक जाने वाली छाया ही
अन्तिम भाषा-सम्भव-नाम ?
करुणा-धाम !
बीज-मन्त्र यह, सार-सूत्र यह, गहराई का एक यही परिमाण
हमारा यही प्रणाम !

        धुँध-ढँकी
         कितनी गहरी वापिका तुम्हारी-
        लघु अंजली हमारी ।