भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

धुन / राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रानी को बहुत सी बेकली थी
कब सूझती कुछ भली-बुरी थी?
चुपके-चुपके कराहती थी।
जीना अपना न चाहती थी।
कहती थी कभी अरी मदन वान!
है आठ पहर मुझे यही ध्यान।
यहाँ प्यास किसे भला भूख?
देखूँ हूँ वही हरे-हरे रूख।
टपके का डर है अब यह कहिए।
चाहत का घर है अब यह कहिए।
अमर‍इयों में उनका वह उतरना,
और रात का साइं-साइं करना,
और चुपके से उठके मेरा जाना,
और तेरा वह चाह का जताना,
उनकी वह उतार अंगूठी लेनी,
और अपनी अंगूठी उन को देनी,
आँखों में मेरे वह फिर रही है।
जी का जो रूप था वही है।
क्यॊंकर उन्हें भूलूँ क्या करूँ मैं?
कब तक माँ-बाप से डरूँ मैं?
अब मैंने सुना है ऐ मदन वान।
वन-वन के हिरन हुए उदय भान।
चरते होंगे हरी-हरी दूब।
कुछ तू भी पसीज सोच में डूब।
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल।
मत मुझको सुंघा यह डहे-डहे फूल।
फूलों को उठा के यहाँ से ले जा।
सौ टुकड़े हुए मेरा कलेजा।
बिखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घास का ला के रख दे गट्टा।
हरयाली उसी की देख लूँ मैं।
कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं?
इन आँखों में है भड़क हिरन की।
पलकें हुईं जैसे घास बन की।
जब देखिए डब-डबा हरी हैं।
ओसें आँसू की छा रही हैं।
यह बात जो जी में गड़ गई है।
एक ओस सी मुझ पै पड़ गई है।