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धूप की यात्रा / सरिता महाबलेश्वर सैल

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धूप नंगे पाव आती है
उजाले का झाड़ू थामे
अँधयारे को बुहारती
सख्त दीवारों पर
पैर पसारती
धूल सनी किताबों पर बैठ
कदमों में लगे
तिमिर की फाके झाडती
धूप नहीं भूलती
चूल्हे पर चढ़
तश्तरी में गिरना
पिछली रात का भीगा तकिया
बैठकर सुखाती

वहाँ से उठकर
बाबूजी की कुर्सी पर बैठ
धूप बतियाती है
नए कैलेंडर के नीचे से झांकते
पूराने कैलेण्डर से
निहारती है
समय का काँटा
जो कभी नहीं रुकता

छाव तले आया देख
धूप सपकपाती
राह ताकती
दरवाज़े के आँख मे
लगा कर काजल

वादा कर धूप
मंदिर की घंटी सहलाती
मटमैले परदों से
झाँकते अँधयारे के बीच से
खिड़की से दबे पांव
चूम लेती ईश्वर का माथा

खेत से लौटती स्त्री को
पहुचा कर देहरी
धूप लौट जाती है
फिर आने के लिए ।