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धूप के बारे में-1 / दिनेश डेका

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मैंने कभी स्वीकारी नहीं
अन्धेरे की मेजबानी
अन्धकार का निमंत्रण है जैसे शूर्पनखा

अन्धकार यानी छोटी कोठरी की सीलनवाली माटी का फ़र्श
बेघर बच्चे की ठंडी रात, मरणा सन्न यक्ष्मा रोगी की ख़ून की उल्टी
हत्यारे का धारदार चाकू, किशोरी का गँवा हुआ कौमार्य

अन्धकार तो है मानो नरक के सैकड़ों-हज़ारों दूत
मैं हूँ जीवन
पूरी धरती की धूप।


मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार