Last modified on 17 फ़रवरी 2010, at 02:30

धूप के बारे में-1 / दिनेश डेका

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:30, 17 फ़रवरी 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=दिनेश डेका |संग्रह=मेरे प्रेम और विद्रोह की …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: दिनेश डेका  » संग्रह: मेरे प्रेम और विद्रोह की कविताएँ
»  धूप के बारे में-1

मैंने कभी स्वीकारी नहीं
अन्धेरे की मेजबानी
अन्धकार का निमंत्रण है जैसे शूर्पनखा

अन्धकार यानी छोटी कोठरी की सीलनवाली माटी का फ़र्श
बेघर बच्चे की ठंडी रात, मरणा सन्न यक्ष्मा रोगी की ख़ून की उल्टी
हत्यारे का धारदार चाकू, किशोरी का गँवा हुआ कौमार्य

अन्धकार तो है मानो नरक के सैकड़ों-हज़ारों दूत
मैं हूँ जीवन
पूरी धरती की धूप।


मूल असमिया से अनुवाद : दिनकर कुमार